कला और विज्ञान में बुनियादी अंतर यह है कि कला के द्वारा सुंदर भावनाओं को व्यक्त किया जाता है, जबकि विज्ञान एक तर्कपूर्ण अभिव्यक्ति है।
कला क्या है? हम बहुत सारे कार्य करते हैं, जब हम उस काम को सुंदर और सूक्ष्म तरीके से करते हैं, तब उसे कला की परिधि में रखते हैं। जैसे गाने की कला, हंसाने की कला, लिखने की कला आदि -ये सभी कला की परिधि में आते हैं।
विज्ञान क्या है? जो विवेक पर आधारित हो, जो कारण और प्रभाव तत्व पर भी ध्यान रखता हो, वह विज्ञान कहलाता है। जब हम कोई काम तर्क के आधार पर करते हैं, तब हम उसके कारण और प्रभाव तत्व की ओर आकर्षित होते हैं।
कई सौ वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने कहा था, जहां कारण तत्व नहीं है, वहां प्रभाव तत्व भी नहीं हो सकता। इस दुनिया में सभी कुछ 'कारण' के दायरे के अंदर आता है, और कोई भी चीज 'अकारण' नहीं है। हम देखकर पता लगा सकते हैं कि कारण तत्व क्या है? जैसे हम चीनी देखते हैं, यहां चीनी का कारण तत्व क्या है? चीनी का कारण तत्व गन्ना है। जहां गन्ना कारण तत्व है तो चीनी वहां प्रभाव तत्व है। जब यहाँ गन्ना प्रभाव तत्व है तो बीज कारण तत्व है। इस तरह जीवन के हरेक क्षेत्र में कारण तत्व है।
अपने 'कारण और प्रभाव' तत्व के कारण आध्यात्मिक साधना का अभ्यास भी विज्ञान के ही दायरे में आता है। ज्ञान कमोबेश सभी प्राणियों में होता है, किंतु अंतर्ज्ञान का अभाव होता है। किंतु मनुष्य में ज्ञान और अंतर्ज्ञान दोनों रहता है। उसके मस्तिष्क के कुछ भागों में चेतन और कुछ भागों में अचेतन ज्ञान भरा होता है।
एक बार पार्वती ने शिव से पूछा, ज्ञान क्या है? भक्ति से इसका क्या संबंध है? क्या भक्ति के माध्यम से भी ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है? शिव ने कहा, जिसे हम वास्तविक ज्ञान कहते हैं, वह आत्म बोध है।
लेकिन यह आत्म बोध क्या है? जब मन की चेतना बाहरी जगत से निकलकर आंतरिक जगत में परिवर्तित हो जाती है, वही वास्तव में ज्ञान है। यहां बाहरी ज्ञान का कोई स्थान नहीं है। विज्ञान के छात्रों को पता है कि छाया के दो भाग हैं -छाया और प्रतिछाया। लेकिन न छाया वास्तविक ज्ञान है और न ही प्रतिछाया।
बाहरी ज्ञान क्या है? बाहरी वस्तु का आत्मस्थीकरण, वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। छाया और प्रतिछाया की ओर देखने से वास्तविक चीज का उचित ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे एक अमरूद और लीची का पेड़ है। दोनों पेड़ों की छाया और प्रतिछाया देखने से पता नहीं चलता है कि कौन अमरूद का पेड़ है और कौन लीची का।
पार्वती ने शिव से पूछा, समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, यह पवित्र स्थल है, वह अपवित्र स्थल है। वे लोग पूरी दुनिया में तीर्थ स्थलों के दर्शन के लिए घूमते हैं। तीर्थाटन का सही पथ क्या है?
शिव ने कहा, इस अभिव्यक्त सृष्टि के अंदर आत्मा के रूप में परम चैतन्य सत्ता बैठी है। इसलिए उस आत्मा यानी अपने आप को जानना ही सबसे अच्छा तीर्थाटन है। आत्मा सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है। बल्कि केवल आत्मा ही तीर्थ है।
तुम सब आध्यात्मिक व्यक्ति हो, इसीलिए तुम सब को यह भी जानना चाहिए कि तुम्हारी गति सूक्ष्म से स्थूल की ओर नहीं, बल्कि स्थूल से सूक्ष्म की ओर है। तुम इस स्थूल जगत की उपेक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि तुम्हारे अस्तिव का भरण-पोषण इसी स्थूल जगत में हुआ है। इसलिए तुम्हें स्थूल जगत का भी उसी तरह सम्मान करना चाहिए जैसा कि सूक्ष्म जगत का करते हो।
Wednesday, September 15, 2010
Sunday, September 5, 2010
प्रेम और सेक्स में विरोध
आप जानकर हैरान होंगे, प्रेम और काम, प्रेम और सेक्स विरोधी चीजें हैं। जितना प्रेम विकसित होता है, सेक्स क्षीण हो
जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना
उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी।
और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो
सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में
से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा
कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है।
सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता
है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है।
सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय
इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो
जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम
का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को
प्रेम से भरें।
आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में
जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर
जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको
प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे
अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम
केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे
चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है,
उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे।
और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है
जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को
फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है।
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे
आटा खिलाएंगे, फिर...।
और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा
प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे!
और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।
दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के
पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था
बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे
होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता
है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य
नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया।
अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे
प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही--अदभुत जगत की व्यवस्था है--उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत
अनुभव करेंगे--जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।
जाता है। और जितना प्रेम कम होता है, उतना सेक्स ज्यादा हो जाता है। जिस आदमी में जितना ज्यादा प्रेम होगा, उतना
उसमें सेक्स विलीन हो जाएगा। अगर आप परिपूर्ण प्रेम से भर जाएंगे, आपके भीतर सेक्स जैसी कोई चीज नहीं रह जाएगी।
और अगर आपके भीतर कोई प्रेम नहीं है, तो आपके भीतर सब सेक्स है।
सेक्स की जो शक्ति है, उसका परिवर्तन, उसका उदात्तीकरण प्रेम में होता है। इसलिए अगर सेक्स से मुक्त होना है, तो
सेक्स को दबाने से कुछ भी न होगा। उसे दबाकर कोई पागल हो सकता है। और दुनिया में जितने पागल हैं, उसमें से सौ में
से नब्बे संख्या उन लोगों की है, जिन्होंने सेक्स की शक्ति को दबाने की कोशिश की है। और यह भी शायद आपको पता होगा
कि सभ्यता जितनी विकसित होती है, उतने पागल बढ़ते जाते हैं, क्योंकि सभ्यता सबसे ज्यादा दमन सेक्स का करवाती है।
सभ्यता सबसे ज्यादा दमन, सप्रेशन सेक्स का करवाती है! और इसलिए हर आदमी अपने सेक्स को दबाता है, सिकोड़ता
है। वह दबा हुआ सेक्स विक्षिप्तता पैदा करता है, अनेक बीमारियां पैदा करता है, अनेक मानसिक रोग पैदा करता है।
सेक्स को दबाने की जो भी चेष्टा है, वह पागलपन है। ढेर साधु पागल होते पाए जाते हैं। उसका कोई कारण नहीं है सिवाय
इसके कि वे सेक्स को दबाने में लगे हुए हैं। और उनको पता नहीं है, सेक्स को दबाया नहीं जाता। प्रेम के द्वार खोलें, तो
जो शक्ति सेक्स के मार्ग से बहती थी, वह प्रेम के प्रकाश में परिणत हो जाएगी। जो सेक्स की लपटें मालूम होती थीं, वे प्रेम
का प्रकाश बन जाएंगी। प्रेम को विस्तीर्ण करें। प्रेम सेक्स का क्रिएटिव उपयोग है, उसका सृजनात्मक उपयोग है। जीवन को
प्रेम से भरें।
आप कहेंगे, हम सब प्रेम करते हैं। मैं आपसे कहूं, आप शायद ही प्रेम करते हों; आप प्रेम चाहते होंगे। और इन दोनों में
जमीन-आसमान का फर्क है। प्रेम करना और प्रेम चाहना, ये बड़ी अलग बातें हैं। हममें से अधिक लोग बच्चे ही रहकर मर
जाते हैं। क्योंकि हरेक आदमी प्रेम चाहता है। प्रेम करना बड़ी अदभुत बात है। प्रेम चाहना बिलकुल बच्चों जैसी बात है।
छोटे-छोटे बच्चे प्रेम चाहते हैं। मां उनको प्रेम देती है। फिर वे बड़े होते हैं। वे और लोगों से भी प्रेम चाहते हैं, परिवार उनको
प्रेम देता है। फिर वे और बड़े होते हैं। अगर वे पति हुए, तो अपनी पत्नियों से प्रेम चाहते हैं। अगर वे पत्नियां हुईं, तो वे
अपने पतियों से प्रेम चाहती हैं। और जो भी प्रेम चाहता है, वह दुख झेलता है। क्योंकि प्रेम चाहा नहीं जा सकता, प्रेम
केवल किया जाता है। चाहने में पक्का नहीं है, मिलेगा या नहीं मिलेगा। और जिससे तुम चाह रहे हो, वह भी तुमसे
चाहेगा। तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। दोनों भिखारी मिल जाएंगे और भीख मांगेंगे। दुनिया में जितना पति-पत्नियों का संघर्ष है,
उसका केवल एक ही कारण है कि वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम चाह रहे हैं और देने में कोई भी समर्थ नहीं है।
इसे थोड़ा विचार करके देखना आप अपने मन के भीतर। आपकी आकांक्षा प्रेम चाहने की है हमेशा। चाहते हैं, कोई प्रेम करे।
और जब कोई प्रेम करता है, तो अच्छा लगता है। लेकिन आपको पता नहीं है, वह दूसरा भी प्रेम करना केवल वैसे ही है
जैसे कि कोई मछलियों को मारने वाला आटा फेंकता है। आटा वह मछलियों के लिए नहीं फेंक रहा है। आटा वह मछलियों को
फांसने के लिए फेंक रहा है। वह आटा मछलियों को दे नहीं रहा है, वह मछलियों को चाहता है, इसलिए आटा फेंक रहा है।
इस दुनिया में जितने लोग प्रेम करते हुए दिखायी पड़ते हैं, वे केवल प्रेम पाना चाहने के लिए आटा फेंक रहे हैं। थोड़ी देर वे
आटा खिलाएंगे, फिर...।
और दूसरा व्यक्ति भी जो उनमें उत्सुक होगा, वह इसलिए उत्सुक होगा कि शायद इस आदमी से प्रेम मिलेगा। वह भी थोड़ा
प्रेम प्रदर्शित करेगा। थोड़ी देर बाद पता चलेगा, वे दोनों भिखमंगे हैं और भूल में थे; एक-दूसरे को बादशाह समझ रहे थे!
और थोड़ी देर बाद उनको पता चलेगा कि कोई किसी को प्रेम नहीं दे रहा है और तब संघर्ष की शुरुआत हो जाएगी।
दुनिया में दाम्पत्य जीवन नर्क बना हुआ है, क्योंकि हम सब प्रेम मांगते हैं, देना कोई भी जानता नहीं है। सारे झगड़े के
पीछे बुनियादी कारण इतना ही है। और कितना ही परिवर्तन हो, किसी तरह के विवाह हों, किसी तरह की समाज व्यवस्था
बने, जब तक जो मैं कह रहा हूं अगर नहीं होगा, तो दुनिया में स्त्री और पुरुषों के संबंध अच्छे नहीं हो सकते। उनके अच्छे
होने का एक ही रास्ता है कि हम यह समझें कि प्रेम दिया जाता है, प्रेम मांगा नहीं जाता, सिर्फ दिया जाता है। जो मिलता
है, वह प्रसाद है, वह उसका मूल्य नहीं है। प्रेम दिया जाता है। जो मिलता है, वह उसका प्रसाद है, वह उसका मूल्य
नहीं है। नहीं मिलेगा, तो भी देने वाले का आनंद होगा कि उसने दिया।
अगर पति-पत्नी एक-दूसरे को प्रेम देना शुरू कर दें और मांगना बंद कर दें, तो जीवन स्वर्ग बन सकता है। और जितना वे
प्रेम देंगे और मांगना बंद कर देंगे, उतना ही--अदभुत जगत की व्यवस्था है--उन्हें प्रेम मिलेगा। और उतना ही वे अदभुत
अनुभव करेंगे--जितना वे प्रेम देंगे, उतना ही सेक्स उनका विलीन होता चला जाएगा।
Subscribe to:
Posts (Atom)