Saturday, July 3, 2010
असहाय लोक, बेशर्म तंत्र
एक ओर बेलगाम महंगाई, उसके बावजूद पेट्रो पदार्थों की कीमतों में यह कहते हुए वृद्धि करना कि सरकार ऐसा करने के लिए मजबूर थी। फिर पेट्रोलियम राज्यमंत्री जतिन प्रसाद का यह बेशर्म बयान कि सरकार किसी भी हाल में बढ़ी हुई कीमतें वापस नहीं लेगी। यह बताना कि फैसला लंबे मंथन और सभी राजनीतिक एवं प्रशासनिक नफा-नुकसान के आधार पर लिया गया है लिहाजा रोलबैक नामुमकिन है।
दूसरी ओर इसी महंगाई की आड़ लेकर सांसदों द्वारा वेतन व भत्तों को बढ़ाने की मांग, वो भी इकठ्ठा पांच गुना। साथ ही 34 मुफ्त विमान यात्राओं की सिफारिश। इसके लिए इस आशय की बेहूदी दलील कि जिससे माननीय मतदाताओं के संपर्क में रह सकें।
क्या यही है लोकतंत्र जिसमें लोक यानि आम जनता असहाय और तंत्र पूरी तरह स्वतंत्र, पूरी तरह निरंकुश, पूरी तरह बेशर्म।
जब भी बात आती है जनप्रतिनिधियों के वेतन-भत्तों में इजाफा करने की तब सत्ता पक्ष व विपक्ष सब साथ खड़े नजर आते हैं। तब कहीं कोई मतभेद, कहीं कोई विवाद दूर-दूर तक नहीं होता। होती है तो सिर्फ सहमति।
यूं भी जनता द्वारा निर्वाचित माननीयों को अपने वेतन-भत्तों में बढ़ोत्तरी के लिए किसी से परमीशन तो लेनी नहीं होती, जो करना है उन्हीं को करना है इसलिए शीघ्र ही सांसदों का वेतन-भत्ता पांच गुना हो जायेगा।
गौरतलब है कि देश में कुल सांसदों की संख्या 795 है जिसमें से 545 लोकसभा के और शेष 250 राज्यसभा से हैं। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि इस वेतन-वृद्धि से देश पर कितना आर्थिक बोझ बढ़ेगा। यहां यह बताना जरूरी है कि महंगाई का रोना रोकर वेतन-वृद्धि की मांग करने वाले तमाम राज्यसभा सदस्य अरबपति व करोड़पति हैं और अधिकांश लोकसभा सदस्य करोड़पति तो हैं ही। हाल ही में राज्यसभा से चुनकर आए विजय माल्या 615 करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। वरिष्ठ पत्रकार और भाजपा नेता चंदन मित्रा ने कुल 9.41 करोड़ रुपए की संपत्ति घोषित की है। राजस्थान से कुल पांच नेता राज्यसभा पहुंचे हैं। इसमें भाजपा से दो जबकि कांग्रेस के तीन हैं। यहां सबसे अमीर सांसद राम जेठमलानी हैं। उनके पास 29 करोड़ की संपत्ति है। भाजपा के ही विजेंद्र पाल सिंह के पास चार करोड़ रुपए से अधिक की संपत्ति है। कांग्रेस के आनंद शर्मा के पास 3.6 करोड और नरेंद्र बुडानिया के पास 2.66 करोड़ की संपत्ति है। मात्र 51 लाख की संपत्ति का खुद को मालिक बताने वाले अश्क अली सबसे ‘गरीब’ सांसद हैं। यह बात दीगर है कि फिलहाल चुनकर आए 54 में से कुल 19 सांसद ही पोस्ट ग्रेजुएट हैं। ग्रेजुएट की संख्या मात्र 12 है। इसी तरह ग्रेजुएट पेशेवर 11 और बारहवीं पास की संख्या 7 है।
यदि अपराधियों की बात की जाए तो हाल में चुनकर आए पंद्रह सांसदों के ऊपर किसी न किसी तरह का आपराधिक मामला दर्ज है। इसमें से छह पर हत्या, धोखाधड़ी जैसे गंभीर मामलों में केस चल रहे हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सभी दागी उम्मीदवार जीत गए हैं। बसपा के एसपी सिंह बघेल पर हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है तो विजय माल्या के ऊपर भी धोखाधड़ी के कई केस दर्ज है। लोकसभा की शोभा बढ़ा रहे 545 सांसदों में से ज्यादातर की स्थति यही है अर्थात उनका भी आर्थिक व सामाजिक स्तर अपने इन सहोदरों से बहुत अलग नहीं है लेकिन चुन कर आये हैं तो सरकारी सुख-सुविधाएं सब को चाहिए। अरबपतियों को भी और करोड़पतियों को भी।
हां, अपवाद स्वरूप कुछ लोगों ने सांसदों द्वारा वेतन-भत्तों को इकठ्ठा पांच गुना किये जाने की मांग पर दबे स्वर में टीका-टिप्पणी की है। जैसे सपा नेता मोहन सिंह। मोहन सिंह ने कहा है कि यह संसद सदस्यों के वेतन में वृद्धि का सीधा मामला है, लेकिन भारत में जमीनी हालात को देखते हुए फैसला किया जाना चाहिए। मार्क्सवादी नेता सीताराम येचुरी कह चुके हैं कि उनकी पार्टी सांसदों द्वारा अपने वेतन के बारे में फैसला करने के कदम का विरोध करेगी, क्योंकि यह गलत है।
पिछली लोकसभा में तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने वेतन वृद्धि के मामले पर विचार के लिए वेतन आयोग जैसी संस्थागत प्रक्रिया के पक्ष में राय दी थी। उन्होंने तो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह को एक पत्र भी लिखा था कि उन्हें लगता है कि अपने वेतन के बारे में सांसदों का खुद ही फैसला करना उचित नहीं है।
उधर वेतन-भत्ता बढ़ाने के पक्षधर सांसदों का तर्क है कि अमेरिका में एक सीनेटर अपने स्टाफ में 18 कर्मचारी रख सकता है, जबकि भारत में एक सांसद का सचिवीय भत्ता (सेक्रेटेरियल अलाउंस) केवल 20000 (बीस हजार) रुपए है। इस राशि में कंप्यूटर जानने वाले स्टाफ को रख पाना संभव नहीं है।
इन सांसदों से कोई पूछे कि अमेरिका में प्रतिव्यक्ित की सालाना आय क्या है और वहां की सरकार आम आदमी के लिए कितना-कुछ करती है तो शायद वह इसका जवाब ठीक-ठीक न दे सकें लेकिन
वहां के सीनेटर की आमदनी का इन्हें पूरा पता है।
जिस देश के नेता स्वतंत्रता के 62 सालों बाद भी जनता की मूलभूत जरूरतें तक पूरी न कर पाये हों, कानून का राज स्थापित न करा पाये हों, आतंकवाद पर लगाम लगाने में पूर्णत: विफल रहे हों, नक्सलवाद जैसी बीमारी को जिन्होंने समय रहते उपचार न करके लाइलाज बना डाला हो। जिनकी नीतियों ने छोटे-छोटे पड़ोसी मुल्कों को आंखें तरेरने की हिम्मत दी हो, पाकिस्तान को अपनी अस्मत पर बार-बार हमला करने का दुस्साहस दिया हो, उन्हें क्या यह कहने का अधिकार है कि अमेरिका के सीनेटर्स को जो सुविधाएं मिलती हैं, वह उन्हें मिलनी चाहिए।
अपने वेतन-भत्ते पांच गुना बढ़ाने की मांग करने वाले सांसदों के पास इस प्रश्न का कोई जवाब है क्या कि कमरतोड़ महंगाई के चलते पहले से ही बमुश्िकल परिवार का पेट पालने वाले लोग अब पेट्रोल, डीजल, कैरोसिन व रसोई गैस के दामों में की गई बेहिसाब बढ़ोत्तरी के बाद अपने खर्चे कैसे व कहां से पूरे करें। लूट करें या डकैती डालें। उनके लिए भी क्या ऐसा कोई खजाना है जहां से वो अपनी जरूरतों को पूरा भर कर सकें। जिन्हें निर्वाचित करके अपने भविष्य की जिम्मेदारी सौंपते हैं, उनका जवाब होता है कि न महंगाई कम कर सकते हैं और न पेट्रो उत्पादों के दाम रोलबैक करना संभव है। संभव है तो केवल अपने वेतन-भत्ते बढ़वाना जो वह बखूबी कर रहे हैं। जनता का क्या है। वह तब भी असहाय थी जब देश गुलाम था और आज भी असहाय है जब पिछले 62 सालों से लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। सच तो यह है कि इस देश में अगर कुछ है तो वह है हिप्पोक्रेसी। न डेमोक्रेसी, न ब्यूरोक्रेसी। सिर्फ और सिर्फ हिप्पोक्रेसी
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